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Saturday, 19 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (3) कंटाल(ख) चुभन भरे दर्द !

समाज के अंग-अंग में चुभते काँटों को आप अपना ही कष्ट जानिये ! 
 (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 


चुभन भरे दर्द मेरे अंक लगे हैं !

बिच्छुओं के, ‘ततैओं के डंक लगे हैं !!


 रूपवती-लाजवती सभ्यता के अब-

चाँद जैसे चेहरे कलंक लगे हैं ||


उड़ रहे हैं बेहिसाब दिशा-हीन से-

'कामना' के सीमा-हीन पंख लगे हैं ||


मन हुए हैं बद रंग मैले मैले से -

आचरण के वसन जैसे पंक लगे हैं ||




घूमने का सरे आम साहस है कहाँ ?

गली गली नाग से आतंक लगे हैं !!


"प्रसून" किसके स्नेह-पगे हृदय से मिलें ?

दाग मन के पटल में असंख्य लगे हैं ||

 



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