समाज के अंग-अंग में चुभते काँटों को आप अपना ही कष्ट जानिये !
(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
‘चुभन’
भरे ‘दर्द’
मेरे ‘अंक’
लगे हैं !
‘बिच्छुओं’ के, ‘ततैओं’ के ‘डंक’ लगे हैं !!
रूपवती-लाजवती
सभ्यता के अब-
‘चाँद’ जैसे चेहरे ‘कलंक’ लगे हैं ||
उड़
रहे हैं बेहिसाब दिशा-हीन से-
'कामना' के सीमा-हीन पंख लगे हैं ||
मन
हुए हैं बद रंग मैले मैले से -
आचरण
के वसन जैसे
‘पंक’
लगे हैं ||
घूमने
का सरे आम साहस है कहाँ ?
गली गली नाग से आतंक लगे हैं !!
"प्रसून"
किसके स्नेह-पगे हृदय से मिलें ?
दाग मन के पटल में असंख्य लगे हैं ||
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