मित्रो !शान्त रस से निकल कर अब थोड़ा हकीकत में प्रवेश करें एक पुरानी ग़ज़ल के साथ !पर्यावरण और मानसिक प्रदूषणों के ऊपर एक टिप्पणी-प्रश्न !(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार !)
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बहूत पापिन हो गयी हैं ये
हवायें !
सांस लेने किस गली गुलशन में जायें ??
किस तरह हम स्वस्थ मन,जीवन
सँवारें ?
विषैली हैं जिस्म की,मन
की दवायें ||
देख कर यह धुआँ ज़हरीला गगन में-
हँसें?गायें? मुस्करायें?? खिलखिलाएं ??
सी लिये मुहँ, ओढ़ ली चुप्पी सभी ने !
पहेली या प्रश्न किससे हम
बुझायें ??
आँख पर पट्टी है बाँधे 'न्याय-देवी'-
माँगने हम न्याय किसके द्वार जायें ??
तेल डाले कान में सब स्वार्थ वाला –
कहाँ जा कर गुनगुनाएं, गीत
गायें ??
आज हैं हमदर्द बिल्कुल
मगरमच्छी-
किसे जाकर घाव हम दिल के दिखायें??
बहुत उलझन है हमारा मन दुखा है –
डस रही हैं हमें अपनी विवशतायें
||
"प्रसून"उलझी डोर अब खलने
लगी है-
इसे सुलझाने को हम सब साथ आयें ||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (12-07-2014) को "चल सन्यासी....संसद में" (चर्चा मंच-1672) पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बिलकुल सटीक रचना और अनुत्तरित प्रश्न सभी !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर …