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Friday, 11 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (2) विष-गन्ध (क) बहुत पापिन हो गयी हैं ये हवायें !

मित्रो !शान्त रस से निकल कर अब थोड़ा हकीकत में प्रवेश करें एक पुरानी ग़ज़ल के साथ !पर्यावरण और मानसिक प्रदूषणों के ऊपर एक टिप्पणी-प्रश्न !(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार !) 

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बहूत पापिन हो गयी हैं ये हवायें !

सांस लेने किस गली गुलशन में जायें ??

किस तरह हम स्वस्थ मन,जीवन सँवारें ?

विषैली हैं जिस्म की,मन की दवायें ||

देख कर यह धुआँ ज़हरीला गगन में-

हँसें?गायें? मुस्करायें?? खिलखिलाएं ??



सी लिये मुहँ, ओढ़ ली चुप्पी सभी ने !

पहेली या प्रश्न किससे हम बुझायें ??

आँख पर पट्टी है बाँधे 'न्याय-देवी'-

माँगने हम न्याय किसके द्वार जायें ??

तेल डाले कान में सब स्वार्थ वाला –

कहाँ जा कर गुनगुनाएं, गीत गायें ?? 


 आज हैं हमदर्द बिल्कुल मगरमच्छी-

किसे जाकर घाव हम दिल के दिखायें??

बहुत उलझन है हमारा मन दुखा है –

डस रही हैं हमें अपनी विवशतायें ||

"प्रसून"उलझी डोर अब खलने लगी है-

इसे सुलझाने को हम सब साथ आयें ||



2 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (12-07-2014) को "चल सन्यासी....संसद में" (चर्चा मंच-1672) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बिलकुल सटीक रचना और अनुत्तरित प्रश्न सभी !
    बहुत सुन्दर …

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