(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
तू 'प्रियतम' की
अनुकृति प्रिया |
है नमन तुझे हे प्रकृति प्रिया !!
जड़ चेतन का पोषण करके -
सुख देना तेरी नियति प्रिया ||
जब ब्रह्म ने सारी सृष्टि रची -
तूने भर दी ‘गति-प्रग़ति’
प्रिया ||
प्राणों में भर ‘चेतना’ तुही -
मन को देती है ‘सु-मति’ प्रिया ||
संचालिका तुही जीवन की है-
आभारी तव 'संसृति', प्रिया
|| तव=तुम्हारी
होतीं जब कुपित 'विकृति' बनतीं
होतीं जब कुपित 'विकृति' बनतीं
हो प्रसन्न बनतीं 'सुकृति' प्रिया
||
‘जल,थल,नभ’, दसों
दिशाओं में -
कण- कण में ततू ही लसित प्रिया ||
उत्पत्ति के 'काम'-"प्रसून" की तू–
रूपसी अनिन्द्या 'रति'-प्रिया
||
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (06-07-2014) को "मैं भी जागा, तुम भी जागो" {चर्चामंच - 1666} पर भी होगी।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
h वाह प्रकृति का प्रेेयसीकरण (मानवीकरण )परकीया प्रेम का महाभाव लिए।
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