(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार !)
अन्धेरे में मुस्कराएं, खिलखिलायें
|
आओ ! मिल कर’ दीप हम ऐसे जलायें ||
बन गया है शहर काजल कोठरी अब -
दाग काले, ह्रदय के कितने दिखायें ||
भूल कर उद्देश्य ‘मानव-उन्नयन’ का –
स्वर्ण
में उलझी हैं सारी संस्थायें ||
दृष्टिकोणों’
में न व्यापकता अभी तक –
बहुत
उथली खोखली हैं भावनायें ||
तजो दक्षिण, और उत्तर, पूर्व-पश्चिम -
तजो दक्षिण, और उत्तर, पूर्व-पश्चिम -
‘भेद’ से बंधतीं कभी क्या ये दिशायें ??
राग अपना अलग मत देखो अलापो-
साथ मिल कर एकता के गीत गायें !!
'वित्त, कंचन,में
सभी गुण'
यह कहावत-
रूढि है, इससे वतन को हम बचायें !!
तोड़
दें मैली कुचैली जंग वाली -
लौह की जंजीर-बेदी सी प्रथायें ||
रीतियाँ कुछ शुष्क काँटों सी नुकीली–
“प्रसून” इनकी
‘होलियाँ’ मिल कर जलायें
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