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Saturday, 12 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (2) विष-गन्ध(ख) शहर काजल-कोठरी !

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार !) 

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अन्धेरे में मुस्कराएंखिलखिलायें |

आओ ! मिल कर’ दीप हम ऐसे जलायें ||

बन  गया  है  शहर काजल कोठरी अब -

दाग काले, ह्रदय के कितने दिखायें ||



 
भूल कर उद्देश्य ‘मानव-उन्नयन’ का –

स्वर्ण में उलझी हैं सारी संस्थायें ||    

दृष्टिकोणों’ में न व्यापकता अभी तक –

बहुत उथली खोखली हैं भावनायें ||

तजो दक्षिण, और उत्तर, पूर्व-पश्चिम -

‘भेद’ से बंधतीं कभी क्या ये दिशायें ?? 

राग अपना अलग मत देखो अलापो-

साथ मिल कर एकता के गीत गायें !!



'वित्त, कंचन,में सभी गुण' यह कहावत-

रूढि है, इससे वतन को हम बचायें !!

तोड़ दें मैली कुचैली जंग वाली -

लौह की जंजीर-बेदी सी प्रथायें ||

रीतियाँ कुछ शुष्क काँटों सी नुकीली–

प्रसून” इनकी ‘होलियाँ’ मिल कर जलायें




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