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Tuesday, 15 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (2) विष-गन्ध (ग) भर गयी कितनी तपन !




महकती थीं कभी जिनसे 'प्रीति की कलियाँ सुमन' |

उन बसन्ती हवाओं में भर गयी कितनी तपन !!

कोमलांगी  बेलि,पादपबल्लरी मुरझा गये -

देख लो,जलने झुलसने लगा है सारा चमन !!



ओ रसीली मधुर पूरब की सुखद पुरबाई सुन !

बन न तू तपती हुई लू, जेठ की ‘पछुवा पवन’ !!

ओ शहर, अपने ह्रदय का अब न तुम उगलो ज़हर !

हुआ गंगा और जमुना का विषैला आचमन ||

निकालो कुछ समय मधुरिम प्रेम के व्यवहार को !

बन गया है वित्त का ही दास ‘मानव-चित्त-मन’ ||



मोगरों, बेला, चमेली में उगे ‘कैक्टस हैं’ उफ़ ! 

भर गयी है भावनाओं. कामनाओं में चुभन !!

लग गये पहरे, नहीं आज़ाद है कोंई गली -

मन लगाने के लिये ढूँढ़ें कहाँ उपवन, सु-वन  ??

धुआँ,कर्कश ध्वनि,कलुष भय-रव बना छाया हुआ 
-
बहुत बोझल मलिन हैं ये जल औ थल-नीला गगन ||



कौन सी ढूँढ़ें जगह हम, प्यार करने के लिये-

शोर में डूबे हुये हैं झील, झरने औ पुलिन ||


मृदुलतायें स्नेह की’ हो विवश मुर्झाईं "प्रसून" 
 
‘रोटी-रोजी’ से थके-मांदे हुये सजनी, सजन
||

4 comments:

  1. सार्थक लेखन।
    --
    वर्तमान का सुन्दर चित्रण।

    ReplyDelete
  2. कौन सी ढूँढ़ें जगह हम, प्यार करने के लिये-
    शोर में डूबे हुये हैं झील, झरने औ पुलिन
    बेहतरीन

    ReplyDelete
  3. कौन सी ढूँढ़ें जगह हम, प्यार करने के लिये-
    शोर में डूबे हुये हैं झील, झरने औ पुलिन ||

    सुन्दर प्रस्तुति।

    ReplyDelete

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