पठारों से हृदय के पथरीले मंज़र देखिये |
दया, करुणा के लिये ये हुए ये बंजर देखिये ||
बुलबुलों,मैनाओं ने है विवश समझौता किया -
सोने, चाँदी के बड़े मजबूत पिंजर देखिये ||
Q
पंकजों में छुपे भँवरे, तितलियाँ व्याकुल हुये-
ताल में घुस आये भूखे कई कुंजर देखिये ||
मीत बनने के लिये, नाटक रचाने आ गये -
आस्तीनों में छुपाये लोग खंज़र देखिये ||
उठी हैं तूफ़ान लेकर कई पछुवा आँधियाँ-
सभ्यता की छतरियाँ हैं हुई जर्जर देखिये ||
वंचना की पूतना है 'प्रेम' को छलने चली -
बजाती मायाविनी माया की झांझर देखिये ||
हरे बागों,बगीचों, वन वितानों की कमी से -
बसन्ती मौसम भी लगता, आज पतझर देखिये ||
मुर्झा गये हैं आस्था की क्यारी के ये "प्रसून"
हुए निर्जल भावना के कई निर्झर देखिये ||
बहुत खूब ...
ReplyDeleteबेहतरीन लेखन सब का सब गज़ल से लेकर जन कविता /गीतों तक होली की रीतों तक।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिनांक 04/09/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल....
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