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Thursday, 19 July 2012

गज़ल-कुञ्ज(गज़ल संग्रह)-(र) बाज)-(२)आतंक (एक अप्रकट निहित सत्य)


  
                                                                          
आतंक जैसे उड़ते हुये चील हुए हैं |
जनता के भोले लोग अबाबील हुए हैं ||
 
जिनके दिलों में स्नेह का न् नीर बचा है -
जिनके नयन मानो सूनी झील हुये हैं ||
 

हैं चित्त जिनके सत्य के सु-ज्ञान से खाली- 
मानो अँधेरे में बुझे कन्दील हुये हैं ||  
  
 
इंसानियत के पाँव में वे लोग चुभे हैं -
रस्ते में पड़ी जंग लगी कील हुये हैं ||


कर के कुतर्क गर्क नर्क कर रहे समाज-
ये लोग ज्यों 'शैतान' के वकील हुये हैं ||
  

 

"प्रसून" प्रीति-बेलि की डालों पे जो खिले -
वे वासना-पराग से अश्लील हुये हैं || 
 

1 comment:

  1. गज़ल की भूमि पे हाइकु रच दिया हो जैसे ,गज़ल को फिल्मा दिया हो जैसे। नै ज़मीन तोड़ी है आपने दुष्यन्ति गज़ल शैली में। मुबारक दिवाली -गोवर्धन -भैया दूज उत्सव त्रयी।

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