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Wednesday 3 September 2014

(6) बाज (ख) आतंक (एक अप्रकट निहित सत्य)

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)



आतंक जैसे उड़ते हुये चील हुए हैं |


जनता के भोले लोग अबाबील हुए हैं ||
 

 

जिनके दिलों में स्नेह का न नीर बचा है -


जिनके नयन मानो सूनी झील हुये हैं ||

 

 

 हैं चित्त जिनके सत्य के सु-ज्ञान से खाली- 


मानो अँधेरे में बुझे कन्दील हुये हैं || 


 
  

 इंसानियत के पाँव में वे लोग चुभे हैं -


रस्ते में पड़ी जंग लगी कील हुये हैं ||
 

 

 

कर के कुतर्क, गर्क-नर्क कर रहे समाज-


ये लोग ज्यों 'शैतान' के वकील हुये हैं ||

 

 

 

"प्रसून" प्रीति-बेलि की डालों पे जो खिले -


वे वासना-पराग से अश्लील हुये हैं ||


                           


 

 

1 comment:

  1. बेहद सशक्त अशआर अपने वक्त से संवाद करते सवाल उछालते। शुक्रिया आपकी टिप्पणियों का बेहद का सशक्त लेखन।

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