(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
मन
पे ‘लालचों’ की ऐसी लग गयी है ‘जंग' |
किसी
के ‘प्यार’ का न इस पे चढ़ रहा है ‘रंग’ ||
सुधारकों
के यत्न क्यों हैं हो रहे विफल ?
क्योंकि
उनकी ज़िंदगी के दोहरे हैं ‘ढंग’ ||
तड़फ़
कर के हो गयी है ‘चेतना’ अचेत-
इसको डस गया है कोई
‘स्वार्थ का भुजंग’ || (भुजंग=काला सर्प)
‘दिल’
नहीं भरा है खाके, भर गया है ‘पेट’-
लग
रहा है, रह रहे हम ‘हब्शियों’ के संग !!
निर्लज्ज
किसी ‘पशु’ की तरह सब के सामने-
है
‘रति’ के वस्त्र चाहता उतारना ‘अनंग’ ||
‘चूनरें’
विवश हुई हैं, ढँक न सकीं ‘लाज’-
‘चोलिया’
इतनी हुई हैं आजकल की तंग !!
‘कुरीतियों’
की ‘चोट’ खा के हुई हैं विकल-
‘सभ्यता
की रूपसी’ के दुख रहे हैं ‘अंग’ !!
‘छल’
की ‘उँगलियों’ में थमी है ‘कपट’ की ‘डोर’-
‘राजनीति’
की उड़ी है इस तरह ‘पतंग’ !!
हैं
बहक गयीं ‘उँगलियाँ’, सहला रही थीं जों-
यों
‘बाँसुरी’ की ‘सरगम’ के ‘स्वर’ हुए हैं भंग !!
“प्रसून”
तेरी ‘पांखुरें’ हैं टूटने वाली-
‘भ्रम-भ्रमर’
ने ऐसा खेला ‘खेल’ तेरे संग !!
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-09-2014) को "सपनों में जी कर क्या होगा " (चर्चा मंच 1735) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
लाजवाब...अति सुन्दर...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
ReplyDeleteदिल की बातें !