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Friday, 12 September 2014

(7) बंजर दिल (घ) मन पे जंग !


 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                                                                    
मन पे ‘लालचों’ की ऐसी लग गयी है ‘जंग' |
किसी के ‘प्यार’ का न इस पे चढ़ रहा है ‘रंग’ ||
सुधारकों के यत्न क्यों हैं हो रहे विफल ?
क्योंकि उनकी ज़िंदगी के दोहरे हैं ‘ढंग’ ||
तड़फ़ कर के हो गयी है ‘चेतना’ अचेत-
                      इसको डस गया है कोई ‘स्वार्थ का भुजंग’ ||     (भुजंग=काला सर्प)
‘दिल’ नहीं भरा है खाके, भर गया है ‘पेट’-
लग रहा है, रह रहे हम ‘हब्शियों’ के संग !!
निर्लज्ज किसी ‘पशु’ की तरह सब के सामने-
है ‘रति’ के वस्त्र चाहता उतारना ‘अनंग’ ||
‘चूनरें’ विवश हुई हैं, ढँक न सकीं ‘लाज’-
‘चोलिया’ इतनी हुई हैं आजकल की तंग !!
‘कुरीतियों’ की ‘चोट’ खा के हुई हैं विकल-
‘सभ्यता की रूपसी’ के दुख रहे हैं ‘अंग’ !!
‘छल’ की ‘उँगलियों’ में थमी है ‘कपट’ की ‘डोर’-
‘राजनीति’ की उड़ी है इस तरह ‘पतंग’ !!
हैं बहक गयीं ‘उँगलियाँ’, सहला रही थीं जों-
यों ‘बाँसुरी’ की ‘सरगम’ के ‘स्वर’ हुए हैं भंग !!
“प्रसून” तेरी ‘पांखुरें’ हैं टूटने वाली-
‘भ्रम-भ्रमर’ ने ऐसा खेला ‘खेल’ तेरे संग !!

3 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (13-09-2014) को "सपनों में जी कर क्या होगा " (चर्चा मंच 1735) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच के सभी पाठकों को
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. लाजवाब...अति सुन्दर...

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