(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
ठण्डे-ठण्डे हृदयों
में यों भीतर पनपी ‘आग’ !
हरे-भरे ‘वन’ में
‘दावानल’ जैसे जाता जाग !!
‘
सुमनों की शैय्या’
पर सोती, ‘प्रिया’, ‘पिया’ के साथ-
‘वित्त्वाद’ के ‘जाल’
में फँस कर, ‘लोभी’ हुआ ‘सुहाग’ !!
लेकर
हाथों में ‘हथगोले’, या लेकर ‘बन्दूक’ !
मारेंगी ‘दहेज़-दानव’
को, पोंछ के अपनी ‘माँग’ !!
‘कोयलिया’ ‘वधिकों’
को काटेगी, पैनी कर ‘चोंच’ !
नहीं सुनायेगी
‘वसंत’ के, ‘मीठे-मीठे राग’ !!
‘पवन’ की ‘गति’ से
‘घोर गरजना-मय’ होंगे ‘संघट्ट’ !!
‘शीतल बादल’ में
पनपेंगे, ‘बिजली’ के ‘प्रतिराग’ !!
बहुत सँभल कर
‘विचरण’ करना, हो करके ‘चैतन्य’ !
‘बर्रों के छत्तों’
से सारा भरा हुआ है ‘बाग’ !!
‘जेठ की दोपहरी’ में
झुलसे, सारे खिले “प्रसून” !
कैसे गायें
‘बुलबुल-कोयल’, ‘मधुर बसन्ती फाग’ ??
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