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Monday, 1 September 2014

(5) उकाव-कबूतर (ख) मायूस ‘परिन्दे’ !

 (सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)



ये ‘परिन्दे’ प्यार के कितने हुए मायूस हैं !

‘उकाबों’ का डर इन्हें कितना हुआ महसूस है !!


 देखने में बाड़, ऊपर से बड़ी मजबूत है |

हकीक़त में यह बड़ी कमज़ोर, गलती ‘फूस’ है ||


अपने घर के लोग अपने घर से ही बागी हुये-

बन गये ये शत्रुओं के घरों के जासूस हैं !!


आ गया है ‘जलजला’, ‘शान्ति’ के इस ‘भवन’ में–

‘छतों’ से गिरने लगे कुछ टूटते ‘फ़ानूस’ हैं ||


खा रहे हैं देश का जी भर के धन औ अन्न ये–

त्याग करने के लिये पर सभी तो कंजूस हैं ||


 "प्रसून" कुचले गये, कलियाँ’ डाल से टूटीं गिरीं -

बाग में हैं घुसे पापी ‘दरिन्दे’ मनहूस हैं !!




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