(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
बहा ‘पसीना’ किन्तु
‘पेट की आग’ जलाती है मन को !
यह ‘बड़वानल’ सी लगती
है, जला रही है ‘जीवन’ को !!
बजाज का था उधार
इतना, ‘रोम-रोम’ था बिका हुआ-
अब की होली में यह ‘झबुआ’,
ढँकता कैसे निज तन को ??
सारा घर ‘तालाब’ बन
गया, हर ‘सुख’ है ‘पानी-पानी’-
‘मुआ जलाने आया फिर
से’, कोस रहा है ‘सावन’ को !!
पानी से तर हैं
दीवारें, टूटीं ‘चौखट-दरवाज़े’-
कभी देखता टूटी छत
को, कभी देखता आँगन को !!
‘हिया’ दरकता,
‘आँसू’ पीता, देख-देख निज ‘प्यारी’ को-
‘कच्ची आयु’ में जब
लखता, उसके ‘ढलते यौवन’ को !!
‘गाल गुलाबी’ मलिन
हो गये, ‘धूल सनी पंखुड़ियों’ से-
बहते हैं ‘आँसू’ कुछ
ऐसे, घोले ‘काले अंजन’ को !!
मानों ‘चन्द्र-पटल’
पर ‘बादल’ के टुकड़े’ घिर आये हों-
या ‘स्याही की दबात’
लुढ़के, मैला कर दे ‘चन्दन’ को !!
या ‘सुन्दर
अरविन्द-कुसुम’ पर, उछले ‘मैली पंक’ लगे-
या कि ‘कोयले का
चूर्ण’ उड़ काला कर दे ‘कंचन’ को !!
बरबस ‘रुप’ झाँकता, कपड़ों
में हैं इतने छेद हुए !
हुए बहुत ‘लाचार’ वस्त्र
ये, ढांक नहीं पाते ‘तन’ कों !!
काम न मिलता, कहाँ
से लाये, ‘अन्न-साग’ या ‘दाल-नमक’ ?
ढूँढ़ रहा ‘भगवान’ को
मानो, तरस रहा है यों ‘धन’ को !!
‘जंगल-जंगल’,
‘ताल-तलैया’, ‘घास-मांस’ जों मिल जाये-
‘प्रिया-पिया’ दोनों
मिल ढूँढ़ा करते अपने ‘भोजन’ को !!
“प्रसून”,
‘जाड़ा-ग्रीष्म-वर्षा’ हर ‘मौसम’ हर ‘ऋतु’ में ही-
‘गरमी’ हो या ‘सर्दी’, जलना ही पड़ता है निर्धन
को !!
यही है प्रेमचंदीय ग़ज़ल जहां यथार्थ ही काफ़िया है और यथार्थ ही है रदीफ़
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