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Saturday, 20 September 2014

(8) आग !(ख) बड़वानल (जल की आग) (i) ‘आंसू’ का ‘गंगाजल’ !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

                                      
यों तो ‘आंसू’ मन पखारते, ‘ गंगाजल' से होते हैं !
पर मन में ‘सन्ताप’-ताप हो, ‘बड़वानल’ से होते हैं !!

‘रेगिस्तानों’ में, यों तो बस, ‘तपती बालू’ मिलती है-
पर इनमें जो ‘प्यास’ बुझा दें, वे ‘छागल’ से होते हैं !!


खोना फिर खो कर पा लेना, ‘मानवता’ की रीति रही-
केवल पाने हेतु लोग क्यों, यों ‘पागल’ से होते हैं ??

अपने ‘दर्द’ संजो कर औरों को ‘शीतलता’ बाँटें जो-
‘बिजली’ को ‘सीने’ में पालें, वे ‘बादल’ से होते हैं !!

‘प्रवंचना’ की ‘चोट’, ‘कटारों-तलवारों’ से ‘पैनी’ है-
  इसकी ‘चोट’ पड़े तो, ‘अन्तर्मन’ घायल से होते हैं !!


 ‘ज्वालाओं में जलते हैं तब, केवल ‘तन’ ही जलते हैं-
वे ‘दुःख’ इतने नहीं, कि जितने ‘विरहानल’ से होते हैं !!

बिंधे ‘शूल’ से जब “प्रसून” तब, ‘पंखुड़ियों’ में छेड़ हुए !
‘प्रति’ के ‘तन’ पर ‘घाव’ और भी गहरे ‘छल’ से होते हैं !! 
(प्रवंचना=धोखा)
  

1 comment:

  1. अपने ‘दर्द’ संजो कर औरों को ‘शीतलता’ बाँटें जो-
    ‘बिजली’ को ‘सीने’ में पालें, वे ‘बादल’ से होते हैं !! अत्यन्त सुन्दर पक्तियाँ

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