(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
यों तो ‘आंसू’ मन
पखारते, ‘ गंगाजल' से होते हैं !
पर मन में
‘सन्ताप’-ताप हो, ‘बड़वानल’ से होते हैं !!
‘रेगिस्तानों’ में,
यों तो बस, ‘तपती बालू’ मिलती है-
पर इनमें जो ‘प्यास’
बुझा दें, वे ‘छागल’ से होते हैं !!
खोना फिर खो कर पा
लेना, ‘मानवता’ की रीति रही-
केवल पाने हेतु लोग
क्यों, यों ‘पागल’ से होते हैं ??
अपने ‘दर्द’ संजो कर
औरों को ‘शीतलता’ बाँटें जो-
‘बिजली’ को ‘सीने’
में पालें, वे ‘बादल’ से होते हैं !!
‘प्रवंचना’ की
‘चोट’, ‘कटारों-तलवारों’ से ‘पैनी’ है-
इसकी ‘चोट’ पड़े तो, ‘अन्तर्मन’ घायल से होते
हैं !!
‘ज्वालाओं में जलते
हैं तब, केवल ‘तन’ ही जलते हैं-
वे ‘दुःख’ इतने
नहीं, कि जितने ‘विरहानल’ से होते हैं !!
बिंधे ‘शूल’ से जब
“प्रसून” तब, ‘पंखुड़ियों’ में छेड़ हुए !
‘प्रति’ के ‘तन’ पर
‘घाव’ और भी गहरे ‘छल’ से होते हैं !!
(प्रवंचना=धोखा)
अपने ‘दर्द’ संजो कर औरों को ‘शीतलता’ बाँटें जो-
ReplyDelete‘बिजली’ को ‘सीने’ में पालें, वे ‘बादल’ से होते हैं !! अत्यन्त सुन्दर पक्तियाँ