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Friday, 3 October 2014
(8) आग ! (ग) जठारानल (भूख की आग) (ii) ‘समय’ नहीं है पास !
‘बटेर’
कहती, “ ‘पेट’ है खाली, मुझको अभी न टेर !!”
गाँव
में ‘नेता’ ‘सम्मलेन’ की जब करते हैं ‘बात’-
कहते
‘भीखू-मीकू’, “देखो हमको लिया है घेर !!
‘सभा-गोष्ठी’
में जाने का ‘समय’ नहीं है पास-
“खेत
में ‘पानी’ देने जाना, होती हमें अबेर !!
“ ‘होली के त्यौहार में भय्या सुन लेंगे हम
‘बात’-
‘समय’
निकालो, ‘दिल्ली’ तज कर, आना ‘देर-सबेर’ !!
“इसी
गाँव में ‘राजनीति’ के, एक हैं ‘ठेकेदार’-
बहुत
‘बड़ी चौपाल’ है उनकी, जिसका पक्का घेर !!
“जाओ
उनके पास, लगाओ ‘मक्खन’-मस्का मार-
अपने एक
‘इशारे’ पर वे, ‘किस्मत’ देंगे फेर !!”
‘चुनाव के मौसम’ में झुक कर, करते हमें ‘प्रणाम’
!
फिर
‘कारों’ से नहीं उतरते, कितना है ‘अन्धेर’ !!
बच के
रहना, छुपे हुए हैं ‘काँटों के अम्बार’-
‘ऊपर-ऊपर’
लगे ‘सुहाने फूलों के हैं ढेर’ !
“प्रसून”
अपने ‘स्वार्थ’ में ये, लगते ‘लोमड़-स्यार’-
जीत गये
तो बन जाते हैं, बिल्कुल ‘बब्बर शेर’ !!”
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ग़ज़ल
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