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Thursday, 2 October 2014

(8) आग ! (ग) जठारानल (भूख की आग) (i) न ‘पानी’ न ‘खाद’ !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

जब तपती है कभी ‘उदर’ में, ‘भूख’ की तपती ‘आग’ !


नहीं सुहाते ‘मल्हार-सावन’ के ‘रस-भीने राग’ !!


 ‘जठर-अनल’ की मज़बूरी से, ‘कलियाँ’ हैं लाचार !


                           कामुक ‘भंवरों’ की ‘बाहों’ में ‘लुटते’ रोज़ ‘पराग’ !!

 

‘आटा-चावल’ उधार लायी, जोड़-जोड़ कर हाथ !


और ‘मुफ़्त’ का तोड़ के लायी, जंगल से कुछ साग !!

         

 

तब उस ‘बुढ़िया’ के घर ‘चूल्हा’ जला, पक सका ‘भात’ !


तीन दिनों के बाद मिल सका भोजन, जागे ‘भाग’ !!

 

ऐसे में क्या ‘धर्म’ के भायेंगे उसको ‘उपदेश’ ??


उसको लगते ‘उपदेशक’ यों, जैसे बोलें ‘काग’ !!

 

नहीं पुराने ‘कपड़े’ भी थे, कटा ‘पूस का मास’ !


क्या खेलेगा ‘नंगा-भूखा बुधुआ’ ‘रस-मय फाग’ !!

                            
                   

 

‘नेता’ कहते हैं ‘भाषण’ में, “इसे मिटायें आप !


विकास के तन पर ‘निर्धनता’, एक ‘बदनुमा दाग’ !!

 

“प्रसून” कैसे खिलें ‘डाल’ पर, मिले न ‘पानी-खाद’ ??


कैसे उसे सुहायें ‘तितली-कलियों’ के ‘अनुराग’ ??

                                                               

 

 

 

 

1 comment:

  1. Ek Marmsparti raachna...katu saty ..bhookh aur gareebi ka aaina dikhaati rachna ...zabaardast !!

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