महकती थीं कभी जिसमें प्रीति की कलियाँ सुमन |
उन बसन्ती हवाओं में भर गयी कितनी तपन !!
कोमलांगी बेलि,पादप,बल्लरी मुरझा गये -
देख लो,जलने झुलसने लगा है सारा चमन ||
ओ रसीली मधुर पूरब की सुखद पुरबाई सुन!
बन न तू तपती हुई लू, जेठ की पछुवा पवन !!
ओ शहर,अपने ह्रदय का अब न तुम उगलो ज़हर |
हुआ गंगा और जमुना का विषैला आचमन ||
निकालो कुछ समय मधुरिम प्रेम के व्यवहार को -
बन गया है वित्त का ही दास मानव चित्त मन ||
मोगरों, बेला,चमेली में उगे कैक्टस हैं उफ़ !
भर गयी है भावनाओं.कामनाओं में चुभन ||
लग गये पहरे, नहीं आज़ाद है कोंई गली -
मन लगाने के लिये ढूँढ़ें कहाँ उपवन,सु-वन ??
धुआँ,कर्कश ध्वनि,कलुष भय-रव बना छाया हुआ -
बहुत बोझल मलिन हैं ये जल औ थल, नीला गगन ||
कौन सी ढूँढ़ें जगह हम, प्यार करने के लिये -
शोर में डूबे हुये हैं झील, झरने औ पुलिन ||
मृदुलतायें स्नेह की हो विवश मुर्झाईं "प्रसून"
रोटी-रोजी से थके-मांदे हुये सजनी, सजन ||
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