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Friday, 29 June 2012

गज़ल-कुञ्ज -(ब) विष-गन्ध-(2)- (दीप हम ऐसे जलायें)



अन्धेरे में मुस्कराएं,खिलखिलायें |

आओ मिल कर दीप हम ऐसे जलायें ||



बन गया है शहर काजल कोठरी अब -

दाग काले,ह्रदय के कितने दिखायें ||

 

     
भूल कर उद्देश्य मानव-उन्नयन का -
स्वर्ण में उलझी हैं सारी संस्थायें ||
    
दृष्टिकोणों में न व्यापकता अभी तक -
बहुत उथली खोखली हैं भावनायें ||

     

तजो दक्षिण,और उत्तर, पूर्व,पश्चिम -

भेद से बन्धतीं कभी क्या ये दिशायें ||



राग अपना अलग मत देखो अलापो-

साथ मिल कर एकता के गीत गायें ||



'वित्त, कंचन,में सभी गुण' यह कहावत-

रूढ़ी है,इससे वतन को हम बचायें ||

  

तोड़ दें मैली कुचैली जंग वाली -

लौह की जंजीर -बेदी सी प्रथायें ||

    


रीतियाँ कुछ शुष्क काँटों सी नुकीली -

"प्रसून" मिल कर होलियाँ इनकी जलायें ||


 




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