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Friday, 29 June 2012

गज़ल-कुञ्ज -(ब) विष-गन्ध-(१)बहुत पापिन हो गयी हैं ये हवायें |

       

बहूत पापिन हो गयी हैं ये हवायें |

सांस लेने किस गली गुलशन में जायें||



किस तरह हम स्वस्थ मन,जीवन सँवारें-

विषैली हैं जिस्म की,मन की दवायें ||

  

देख कर यह धुआँ ज़हरीला गगन में -

हँसें?गायें? मुस्करायें?? खिलखिलाएं ???

 

सी लिये मुहँ, ओढ़ ली चुप्पी सभी ने-

पहेली या प्रश्न किससे हम बुझायें ??

  

आँख पर पट्टी है बाँधे 'न्याय-देवी'-

माँगने हम न्याय किसके द्वार जायें ??


तेल डाले कान में सब स्वार्थ वाला -

कहाँ जा कर गुनगुनाएं, गीत गायें ??
  

आज हैं हमदर्द बिल्कुल मगरमच्छी-

किसे जाकर घाव हम दिल के दिखायें??  
बहुत उलझन है हमारा मन दुखा है -

डस रही हैं हमें अपनी विवशतायें ||


 

"प्रसून"उलझी डोर अब खलने लगी है-

इसे सुलझाने को हम सब साथ आयें || 








































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