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Saturday, 1 November 2014
(12) ‘सियासत’ के ‘पीर (ख) भला किया तुमने !
वाह वाह
! क्या खूब भला किया तुमने !
‘दर्द-चुभन’
का सिलसिला दिया तुमने !!
बढ़ गयीं
‘दूरियाँ’, ‘अपनों’ से ‘अपनों’ की-
जाने वह
क्या ‘गुल’ खिला दिया तुमने !!
‘चौराहे’
पर खड़ा वह ‘बापू’ का ‘पुतला’-
‘तेजाबी
नफ़रत’ से गला दिया तुमने !!
‘सियासी
कबड्डी’ में बदल कर ‘पाला’-
‘रेत’
की तपती ‘ज़मीन’ पर ‘बिस्तर’ दे-
‘लुओं’
का ‘पंखा’ चला दिया तुमने !!
“प्रसून”
ने भरोसा किया, छुपे ‘काँटों’ पर-
छाती पर
मूंग को दला दिया तुमने !!
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ग़ज़ल
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