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Friday, 14 November 2014
(14) सभ्यता (क) सभ्यता इसी को कहते हैं !
‘फूलों’
में ‘काँटे’ रहते हैं |
वे इक-दूजे
को सहते हैं ||
दोनों
में ‘समझौता’ हो जब-
‘सभ्यता’
इसी को कहते हैं ||
हम
‘भले-बुरे’ का निवाह कर-
अनवरत
‘नदी’ से बहते हैं ||
जब तक न
‘मिलन’ हो ‘सागर’ से-
तब तक
क्या रुकना ! चलते हैं ||
खुद भी
चलते अपनी ‘मंजिल’-
औरों को
चलने देते हैं ||
‘गैरों’
के लिये हमारे तो-
‘अरमान’
दिलों में पलते हैं ||
‘जीवन’
के “प्रसून” खिलते हैं ||
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गज़ल
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (16-11-2014) को "रुकिए प्लीज ! खबर आपकी ..." {चर्चा - 1799) पर भी होगी।
--
चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...@आंधियाँ भी चले और दिया भी जले
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