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Wednesday 23 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (4) झरबेरी-गुलाब (क) मेरे पड़ोसी !


(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)
 आइये मेरे पड़ोसी को नज़र भर देखिये !

देखिये इसकी अदायें, इसके तेवर देखिये !!


भवन इनका काँच का है, किन्तु वे निश्चिन्त है -

फेंकते वे मेरे घर पर कितने पत्थर देखिये !!






पत्थरों का हृदय, पत्थर का कलेजा हो गया -

अक्ल पर उनके पड़े हैं कितने पत्थर देखिये !!


प्यार से भरने हमें बाहों में अपनी आ गये -

आस्तीनों में छिपाये पैने खंज़र देखिये !!


चोट हमने खाई जब, एकांत में हर्षित हुये-

तसल्ली देते हैं झूठी तरस खा कर, देखिये !!


मगरमच्छों की तरह हिंसक है उनकी भावना –

आँख में उमड़ा दिखावे का ‘समुन्दर’ देखिये !!


"प्रसून" की सारी पंखुरियाँ किस तरह घायल हुईं-


गुलाबों के
पास झरबेरी का मंज़र देखिये!



Tuesday 22 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (3) कंटाल (ग) कंटकों की डालियाँ !

(सरे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार)

फाख्तों के,तितलियों के पर कटे घायल हुईं |
कण्टकों की डालियाँ कुछ इस तरह ‘पागल’ हुईं !!
बाग में तारों सी खिलतीं, सुमन-कलियाँ’ सुस्त हैं- 
अनमनी उदास, दुखिता दया के क़ाबिल हुईं ||
तेज झोंकों से भरी कुछ ‘हवायें’ बदमस्त सी-
झूमती हैं, डगमगातीं , और भी ‘चंचल’ हुईं ||

हर झरोखे से उठी है, चीख क्रन्दन से भरी-
लहू के प्यासे मनों में इस तरह खलबल हुई ||
मछलियों को भय हुआ, वे तड़फड़ाने सी लगीं
शान्त,सुन्दर झील के तल में विषम हलचल हुई ||
स्नेह के सम्बन्ध वाली रसिक प्रेमी टोलियाँ -
'
काम'के तूफ़ान,हिंसा- 'कहर के बादल' हुईं ||
‘अँधेरों’ ने ‘उजालों’ पर कर लिया अधिकार यों-
"प्रसून" मेरी चाहतें, मायूस यों हर पल हुईं !!


 

Saturday 19 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (3) कंटाल(ख) चुभन भरे दर्द !

समाज के अंग-अंग में चुभते काँटों को आप अपना ही कष्ट जानिये ! 
 (सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 


चुभन भरे दर्द मेरे अंक लगे हैं !

बिच्छुओं के, ‘ततैओं के डंक लगे हैं !!


 रूपवती-लाजवती सभ्यता के अब-

चाँद जैसे चेहरे कलंक लगे हैं ||


उड़ रहे हैं बेहिसाब दिशा-हीन से-

'कामना' के सीमा-हीन पंख लगे हैं ||


मन हुए हैं बद रंग मैले मैले से -

आचरण के वसन जैसे पंक लगे हैं ||




घूमने का सरे आम साहस है कहाँ ?

गली गली नाग से आतंक लगे हैं !!


"प्रसून" किसके स्नेह-पगे हृदय से मिलें ?

दाग मन के पटल में असंख्य लगे हैं ||

 



Thursday 17 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (3) कंटाल (क) पैना शूल चुभोया

(सारे चित्र 'गूगल-खोज' से साभार) 

 किसने करुणा-सदय-हृदय में पैना शूल चुभोया ?


किसने फूलों के मधुवन में कंटालों को बोया ??


स्वतन्त्रताके इन वर्षों में कितने तूफां आये !


सोचो पल भर और विचारो,क्या पाया क्या खोया ??


 संस्कृति और सभ्यता वाली यह भारत की नौका -


की पतवारें तोड़ तोड़  कर किसने   इसे डुबोया ?

 हँसती हुई किलकती गाती जनता के सीने को-


बोलो किसने आज आँसुओं से है अरे भिगोया ??

 

कितनी मैल भरी है मन में,यह तो हमें बताओ !


मैला किया 'प्रेम' जो पुरखों ने 'आस्था' से धोया ||


अतीत की यादों में अपना देश विचारा प्यारा -


फूट फूट कर, सिसक-सिसक कर "प्रसून"  कितना  रोया !!

 

 

 

 

Tuesday 15 July 2014

गज़ल-कुञ्ज (2) विष-गन्ध (ग) भर गयी कितनी तपन !




महकती थीं कभी जिनसे 'प्रीति की कलियाँ सुमन' |

उन बसन्ती हवाओं में भर गयी कितनी तपन !!

कोमलांगी  बेलि,पादपबल्लरी मुरझा गये -

देख लो,जलने झुलसने लगा है सारा चमन !!



ओ रसीली मधुर पूरब की सुखद पुरबाई सुन !

बन न तू तपती हुई लू, जेठ की ‘पछुवा पवन’ !!

ओ शहर, अपने ह्रदय का अब न तुम उगलो ज़हर !

हुआ गंगा और जमुना का विषैला आचमन ||

निकालो कुछ समय मधुरिम प्रेम के व्यवहार को !

बन गया है वित्त का ही दास ‘मानव-चित्त-मन’ ||



मोगरों, बेला, चमेली में उगे ‘कैक्टस हैं’ उफ़ ! 

भर गयी है भावनाओं. कामनाओं में चुभन !!

लग गये पहरे, नहीं आज़ाद है कोंई गली -

मन लगाने के लिये ढूँढ़ें कहाँ उपवन, सु-वन  ??

धुआँ,कर्कश ध्वनि,कलुष भय-रव बना छाया हुआ 
-
बहुत बोझल मलिन हैं ये जल औ थल-नीला गगन ||



कौन सी ढूँढ़ें जगह हम, प्यार करने के लिये-

शोर में डूबे हुये हैं झील, झरने औ पुलिन ||


मृदुलतायें स्नेह की’ हो विवश मुर्झाईं "प्रसून" 
 
‘रोटी-रोजी’ से थके-मांदे हुये सजनी, सजन
||

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